BA Semester-5 Paper-2 Sanskrit - Hindi book by - Saral Prshnottar Group - बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 संस्कृत व्याकरण एवं भाषा-विज्ञान - सरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 संस्कृत व्याकरण एवं भाषा-विज्ञान

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :224
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2802
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बीए सेमेस्टर-5 पेपर-2 संस्कृत व्याकरण एवं भाषा-विज्ञान - सरल प्रश्नोत्तर

प्रश्न- अथ समास और अव्ययीभाव समास की सिद्धि कीजिए।

अथवा
'भूतपूर्वः' का लौकिक एवं अलौकिक समास विग्रह करके समास का नामोल्लेख कीजिए।


उत्तर -

१. अथ समास

भूतपूर्वः - लौकिक विग्रह - 'पूर्व भूतः' अलौकिक विग्रह 'पूर्व अम् + भूत सु

 

यहाँ 'पूर्व अम् + भूत सु' इस अलौकिक विग्रह में 'सह सुपा' सूत्र से समूचा समुदाय समाससंज्ञक हो जाता है। पुनः 'कृत्तसिद्धतसमासश्च' सूत्र से समास की प्रतिपादिक संज्ञा होकर 'सुपो धातुप्रतिपादिकयोः' से प्रतिपदिकावयवं 'अम्' और 'सु' सुप् प्रत्ययों का लुक् हो जाता है- 'पूर्व भूत'। पूर्ण निपात के प्रसङ्ग में 'प्रथमा निर्दिष्टं समास उपसर्जनम्' सूत्र द्वारा समास विधायक सूत्र में प्रथमा विभक्ति से निर्दिष्ट पद की उपसर्जन संज्ञा करके 'उपसर्जनंपूर्वम्' सूत्र से उस पद का पूर्व निपात प्राप्त होता है, किन्तु प्रकृत स्थल पर दोनों पद पूर्व तथा भूत सूत्रस्थ प्रथमा विभक्ति पद (सुप्) से बोध्य है। इससे दोनों का बारी-बारी से पूर्वनिपात होने लगता है। अथवा 'उपसर्जन' इस महासंज्ञा के कारण इसे अन्वर्थ मानकर उपसर्जन अर्थात् गौणपद 'पूर्व' का ही पूर्व निपात प्राप्त होता है। इस पर 'भूतपूर्वे चरत' इस पाणिनीय सूत्र की ज्ञापकता से 'भूत' का पूर्व निपात होकर बना 'भूतपूर्व'।

अब एकदेशविकृतमनन्यवात् परिभाषा के अनुसार भूतपूर्व की प्रातिपादिक संज्ञा अक्षुण्ण रहने से 'ङयाप्प्रतिपदिकात्' सूत्र से प्रथमा एकवचन की विवक्षा में सुप् प्रत्यय 'सु' आने से, सकारोत्तरवर्ती उपकार के 'उपदेशेऽजनुनासिक इत्' इस इत् संज्ञक होकर 'तस्य लोपः' से लोप होने पर रूप बना भूतपूर्व + स। 'ससजुषो रु' सूत्र से पदान्त सकार को रुत्वादेश होकर बना 'भूतपूर्व रु' स्कारोतरती उकार के लोपोपरान्त अवसान में स्थित 'रेफ का' 'खरवसानयार्विसर्जनीय' सूत्र द्वारा विसर्ग आदेश पर सिद्ध हुआ भूतपूर्वः।

वागर्थाविव -
लौकिक विग्रह - 'वागर्थौ इव'.
अलौकिक विग्रह वागर्थ और इव

यहाँ सर्वप्रथम' 'बाबू सु + अर्थ सु इस लौकिक विग्रह में (लौकिक विग्रह वाक् च अर्थश्च) 'चार्थे द्वन्द्व' सूत्र से द्वन्द्व समास होकर सुब्लुक करने पर तथा 'चोः टुः सूत्र से चकार को ककार पुनः जश्त्वेन ककार को गकार कर विभक्ति कार्योपरान्त समस्त पद 'वागर्थो' बनता है। अब 'वागर्थ और इव' इस अलौकिक विग्रह में 'इवेन समासो विभक्तयलोपः पूर्वपद प्रकृतिस्वरत्वं च वार्तिक से समास हुआ। अब 'सुपो धातु प्रातिपादिकायो' सूत्र से सुप् का 'लुक्' प्राप्त होता है, किन्तु प्रकृत वार्तिक में 'विभक्तयलोपः ' कथन के कारण उसका निषेध हो जाता है। अब नादिचि सूत्र से पूर्व सर्वण दीर्घ का निषेध होकर 'वृद्धिरेचि सूत्र द्वारा वृद्धि एकादेश तथ एचोऽयषाषावः' से औकार को 'आव्' आदेश करने पर 'वागयार्थविव' बना। पुनः 'कृन्तद्वितसमासाश्च' सूत्र से समास की 'प्रतिपादिक संज्ञा' होकर 'ययाप्प्रतिपादिकात्' सूत्र से स्वादिप्रत्ययों की उत्पत्ति होने पर प्रथमा विभक्ति के एकवचन की विवक्षा में सुप् प्रत्यय सु आने पर रूप बना वागर्थाविव + सु। अब इस समुदाय को तदन्तविधि से अव्यय मानकर इससे परे सुप् का अत्ययादाप्सुपः से लुक् होकर रूप बना वागर्थाविव।

२. अव्ययीभाव समास

 

अधिहरि - लौकिक विग्रह 'हरौ' अलौकिक विग्रह - 'हरि ङि' + अधि। यहाँ हरि ङि + अधि इस अलौकिक विग्रह में विभक्तयर्थक अधि अव्यय इस 'सुबन्त' पद हरि ङि इस समर्थ सुबन्त के साथ 'अव्ययं विभक्ति समीपसमृद्धि व्यद्वययार्थभावात्यया संप्रतिशब्दप्रादुर्भावपश्चाद्यथानुपूर्व्ययौगपद्य सादृश्य सम्पत्ति साकल्यान्त वचनेषु" सूत्र द्वारा नित्य अव्ययीभाव समास को प्राप्त हुआ। ततः प्रथमा निर्दिष्ट' समास उपसर्जनम् सूत्र के द्वारा सूत्रस्य प्रथमाविभक्ति पद 'अव्ययम्' से बोध्य 'अधि' अव्यय की उपसर्जनसंज्ञा तथा 'उपसर्जनंपूर्वम्' सूत्र से सम्पूर्ण समास समुदाय की प्रतिपादिक संज्ञा तथा 'सुपोद्यातुप्रतिपादिकियो' सूत्र से प्रतिपादिकावयव सुप् (ङि) का लुक करने से रूप बना अधि हरि ! 'एकदेशविकृतमनन्यवत् न्यायानुसार अधिहरि की प्रातिपादिक संज्ञा अक्षुण्ण रहने से 'ङयाप्प्रातिपादिकात् "प्रत्ययः" तथा 'परश्च' सूत्रों की सहायता से प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में 'सु' प्रत्यय आने पर रूप बना। संधिहरि + सु 'अव्ययीभावश्च' सूत्र द्वारा अव्ययीभाव समास अधिहरि की अव्यय संज्ञा होने से इससे परे 'सु' प्रत्यय का 'अव्यायादाप्सुपः' सूत्र द्वारा लुक् करने पर 'अधिहरि' प्रयोग सिद्ध हुआ।

अधिगोपम् - लौकिक विग्रह 'गोपि' आदि अलौकिक विग्रह 'गोप ङि + अधि यहाँ अधिकरणवाचक अव्यय सुबन्त पर अधि का गोपा ङि इस समर्थ सुबन्त के साथ 'अव्ययं विभक्ति सूत्र द्वारा नित्य अव्ययीभाव समास हुआ। 'प्रथमा-निर्दिष्ट समास उपसर्जनम्' सूत्र से सूत्रस्थ प्रथमा निर्दिष्ट 'अव्यय' से बोध्य पद 'अधि' की उपसर्जन संज्ञा तथा 'उपसर्जनंपूर्वम्' से पूर्व निपात होकर रूप बना 'अधि गोप ङि।

'कृर्ताद्धितसमासाश्च' सूत्र से समग्र समुदाय की प्रातिपादिक संज्ञा तथा 'सुबोधात् प्रतिपादिकयों' सूत्र से सुप (डि) का लुक होकर 'अधिगोपा' बना। ततः 'अव्ययीभावश्च' सूत्र से अधिगोप पुनः एकदेशविकृतमनन्यवत् न्यायानुसार 'अधिगोप' की प्रातिपादिकता अक्षुण्ण रहने पर 'ड्याप प्रातिपादिकात ' 'प्रत्यय' तथा 'पश्च' सूत्रों से प्रथमा एकवचन की विपक्षा में 'सु' प्रत्यय आने पर रूप बना अधिगोप् + सु। 'अव्ययीभावश्च' सूत्र से अधिगोप की अव्यय संज्ञा होने पर 'अव्ययादाप्सुपः' सूत्र से सु का लुक् प्राप्त हुआ। किन्तु नाव्ययीभावादतोऽम् त्वपञ्चम्याः सूत्र से अदत्त अव्ययी भाव अधिगोपः से परे सु का लुक न होकर उसे 'अम्' आदेश होकर रूप बना 'अधिगोप + अम्' पुनः अकः सवर्णे दीर्घः सूत्र से दीर्घ आदेश का भमिपूर्वः सूत्र द्वारा बाँध होकर पूर्वरूप एकादेश करने पर 'अधिगोपम्' रूप बना।

उपकृष्णाम् - (कृष्ण के समीप)
लौकिक विग्रह - 'कृष्णस्य समीपम्'।
अलौकिक विग्रह - 'कृष्ण स + उप्'।

यहाँ 'कृष्ण ड्स + उप इस अलौकिक विग्रह से 'समीप' अर्थ में वर्तमान अव्यय 'उप' का सुबन्त 'कृष्ण ड्स' के साथ 'अव्ययं विभक्तिसमीपसमृद्धिव्यद्धपर्थाभावात्य-पासंप्रति शब्द प्रादुर्भाव पश्चाद् यथानुपूर्व्ययौगपद्या सादृश्यसंपत्ति साकल्यान्त वचनेषु। सूत्र से नित्य अव्ययीभाव समास हुआ। प्रथमा निर्दिष्टं समास उपसर्जनम् से सूत्रस्थ प्रथमान्त पद 'अव्ययम्' से बोध्य 'उप' की उपसर्जन संज्ञा तथा 'उपसर्जन पूर्वम्' से उसका पूर्वनिपात होकर रूप बना - उप + कृष्ण स। कृत्ताद्विसमासाश्च सं समग्र समुदाय की प्रातिपादिक संज्ञा होने पर 'सुपोद्यातुप्रातिपादिकयो:' सूत से प्रातिपादिकावयत सुप् (स) का लुक् होकर रूपा बना उपकृष्ण। 'एकदेशविकृतमनन्यवत्' न्यायानुसार प्रातिपदिक संज्ञा अक्षुण्ण रहने से 'ङ्याप्प्रातिपादिकात्' सूत्र द्वारा सुकुत्पत्ति के प्रसङ्ग में प्रथमा के वचन के विवक्षा में 'सु' प्रत्यय लाने पर हुआ उपकृष्ण + सु। 'अव्ययीभावश्च' सूत्र से अव्ययीभावसमास 'उपकृष्ण' की अव्यय संज्ञा होने पर 'भव्ययादारसुप' से सु का लुक प्राप्त हुआ। किन्तु इसका व्यध नाव्ययीभावादतोऽम त्वपञ्चम्याः' से सु को अमादेश तथा अमिपूर्वः से पूर्वरूप एकादेश करने पर उपकृष्ण प्रयोग सिद्ध होता है।

इसी समस्त पद 'उपकृष्ण' से तृतीया के एकवचन की विवक्षा में 'उपकृष्ण' ता होने पर 'नाव्ययीभावादतोऽम् त्वपञ्चम्याः' से प्राप्त नित्य आमादेश का बोध तृतीय 'सप्तम्योर्बहुलम्' सूत्र से होकर 'टा' को अमादेश बहुलता से होता है। अमादेश के पक्ष में 'उपकृष्ण + अम्' होकर 'अमिपूर्वः' सूत्र द्वारा पूर्वरूप एकादेश होकर 'उपकृष्णम्' सिद्ध होता है तथा अम् आदेश के अभाव पक्ष में सूत्र 'टा सिसमिनात्स्याः' से उपकृष्ण + ट में टा को 'इन' आदेश होकर इना उपकृष्ण + इन भव आद्गुणः सूत्र. से गुण एकादेश करने पर 'उपकृष्णेन' प्रयोग सिद्धि हो जाता है।

उपकृष्णे - समस्त पद 'उपकृष्ण' से सप्तमी एकवचन की विवक्षा में 'ङि' लाने पर 'उपकृष्ण + ङि' बना। अब अव्ययीभावश्च से अव्ययसंज्ञक 'उपकृष्ण' से परे सुप् ङि को लुक् का विधान करने वाले सूत्र 'अव्ययादारसुपः' का बोध करने वाला 'नाव्ययीभावादतोऽम् त्वयञ्चम्याः ' भी तृतीय 'सन्तम्योर्बहुलम्' से बाधिक हो जाता है। इससे 'अमदिश' के भाव पक्ष में 'उपकृष्ण + अम्' होने पर 'अमिपूर्व' द्वारा पूर्वरूप एकादेश होकर 'उपकृष्णम्' बनता है तथा अभाव पक्ष में 'उपकृष्ण + ङि' स्थिति में 'सुथ् ङि' के अनुबन्ध लोप तथा 'आदगुणः' सूत्र द्वारा गुण एकादेश होकर 'उपकृष्णे' सिद्ध होता है।

सुमद्रम् - लौकिक विग्रह मुद्राणां समृद्धिः सुमद्रम्। अलौकिक विग्रह मद् आम् सु। यहाँ पर 'समृद्धि' अर्थ में वर्तमान अव्यय 'सु' का 'मद् आम्' इस समर्थ सूक्त के साथ 'अव्ययं विभक्तिसमीप समृद्धि' सूत्र से नित्य अव्ययीभाव समास होता है। 'प्रथमा निर्दिष्ट समास उपसर्जनम्' सूत्र से प्रथमा निर्दिष्ट सूत्रस्थ पद 'अव्ययम्' के बोध 'सु' की उपसर्जन सञ्ज्ञा तथा 'उपसर्जनपूर्वम्' सूत्र से उसका पूर्व निपात होकर रूप बना आम्। पुनः कृत्तद्धितसमासाश्च सूत्र द्वारा समास की प्रातिपदिक संज्ञा तथा 'सुपोधातुप्रातिपदिकयोः' सूत्र द्वारा प्रतिपादिकायवयव सुप् (आम्) का लुक् होकर रूप बना 'समुद्र'। समस्त शब्द 'समुद्र' का 'एकदेशविकृतमनन्यवत्' न्यायानुसार प्रातिपादिकत्व अक्षुण्ण रहने से 'ङयाप्प्रातिपादिकात्' सूत्र द्वारा सुषुत्पत्ति के प्रसङ्ग में प्रथमा एकवचन की विवक्षा में 'सु' आकार बना समुद् + सु। 'अव्ययीभावश्च' सूत्र से अव्ययी भाव समास 'समुद् की अव्यय संज्ञा होकर 'अव्ययादाप्सुपः ' सूत्र से उससे परे सुप् 'सु' का लुक् प्राप्त हुआ। परन्तु 'नाव्ययीभावादतोऽम् त्वपञ्चम्या' सूत्र द्वारा लुक् का बोध होकर समावेश होने अमिपूर्व सूत्र द्वारा पूर्वरूप एकादेश होकर रूप बना 'सुमद्रम्'।

दुर्यवनम् - यवनों की समृद्धि का अभाव।
लौकिक विग्रह - 'यवनानां व्यद्धिः दुर्यवनम्।
अलौकिक विग्रह -यवन आम् दुर'।

यहाँ पर 'अव्ययं विभक्ति-समीप समृद्धि से व्यद्धयर्थक अव्ययं 'दुर' का सुबन्त 'पवन आम्' के समास। 'प्रथमा निर्दिष्ट समास उपसर्जनम्' सूत्र से प्रथमा निर्दिष्ट सूत्रस्थ पद 'अव्ययम्' के बोध्य की उपसर्जन सञ्ज्ञा तथा 'उपसर्जनंपूर्वम्' सूत्र से उसका पूर्वनिपात होकर रूप बना सु यवन आम् व सु पुनः कृत्तद्वितसमासाक्ष सूत्र द्वारा समास की प्रातिपदिक सञ्ज्ञा तथा 'सुपो धाग्प्रातिपादिकयोः सूत्र द्वारा प्रातिपादिकाः वयव सुप (आम्) का लुक् होकर रूप बना 'दुर्यवन्। समस्त शब्द 'दुर्यवन' की एकदेशाविकृतमनन्यवत्' न्यायानुसार प्रातिपादिकत्व अक्षुण्ण रहने से 'याप्प्रातिपदिकात' सूत्र द्वारा सुषुत्पत्ति के प्रसंङ्ग में प्रथमा एकवचन की विवक्षा में सु आकार बना दुर्यवन + सु। 'अव्ययीभावश्च' सूत्र से अव्ययीभाव समास 'दुर्यवक की अव्यय संज्ञा होकर 'अव्ययादाप्सुपः' सूत्र से उससे परे 'सुप' 'सु' का लुक प्राप्त हुआ परन्तु 'नाव्ययीभावादतोऽमत्वम् पञ्चम्पा' सूत्र द्वारा लुक् का बाध होकर आदेश होने पर 'अमिपूर्व' सूत्र द्वारा पूर्वरूप एकादेश होकर रूप बना दुर्यवनम्।

निर्मक्षिकम् - (मक्खियों का अभाव)

अथवा
'निर्मक्षिकम' पद का विग्रह सहित समास का नामोल्लेख कीजिए।

लौकिक विग्रह - 'मक्षिकाणामभावो निर्मक्षिकम् अलौकिक विग्रह-मक्षिका आम् निर् यहाँ पर अर्थाभाव (अर्थाभावः अर्थस्याभावः वस्तुनोऽभावः वा वस्तु का अभाव) अर्थ में वर्तमान अव्यय निर् का समर्थ सुबन्त 'मक्षिका आम्' के साथ 'अव्ययंसम विभक्ति पसंमृद्धिव्यद्धयर्भाभा वात्ययासंप्रतिशब्दप्रादुर्भावपश्चाद् यथानुपूर्वा यौगपद्य सादृश्य संपत्ति साकाल्यान्त वचनेषु' सूत्र से नित्य अव्ययीभाव समास हुआ। 'प्रथमा निर्दिष्टं समास उपसर्जनम् से निद् की उपसर्जनसंज्ञा तथा 'उपसर्जनंपूर्वम्' से उसका पूर्वनिपात करने पर रूप बना 'मक्षिक' आम् ! 'कुत्तद्धित समासाश्च' सूत्र से समग्र समुदाय की प्रातिपादिकसंज्ञा होकर 'सुपो धातु प्रतिपादिकयोः। सुप् (माम्) का लुक् होकर रूप बना निर् मक्षिका 'जलतुम्बिका' समयानुसार रेफ का ऊर्ध्वषात् होकर बना 'निर्माक्षिका'। अव्ययीभावश्च सूत्र से नुपंसक 'निर्मक्षिक' को 'ह्रस्वो नपुंसके प्रातिपादिकस्य' से ह्रस्व अन्तादेश होकर बना निर्मक्षिका।

अब 'एकदेशविकृतमनन्यवत' न्यायानुसार प्रातिपादिकत्व की अक्षुण्णता एवं 'याय्प्रातिपदिकात्' से सुबुत्पत्ति के प्रसङ्ग में प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में सु लाने पर निर्मक्षिक + सु बना। 'अव्ययीभावश्च सूत्र से अव्ययक्ष निर्मक्षिक' से परे सु के अव्ययादाप्सुपः' सूत्र से प्राप्त लुक् का निषेध ‘नाव्ययीभावादतोऽमत्वपञ्चमाः से उनमादेश होने पर तथा अभिपूर्वः से पूर्वरूप एकादेश होकर रूप बना निर्मसिकम्।

अतिहिंमम् - (शीतकाल का व्यतीत हो जाना)

लौकिक विग्रह -
हिमस्यऽत्ययोऽतिहिमम्। अलौकिक विग्रह 'हिम ङस् + अति यहाँअव्ययंविभक्तिसमीपसमृद्धिव्यद्धयर्थाभावाक्ष्ययासंप्रतिशब्दप्रादुर्भावपश्चाद्यभानुपूर्व्ययौगद्य
सादृश्यसं पत्ति साकाल्यान्त स्वनेषु' 'सूत्र से नित्य अव्ययीभाव समास हुआ। 'प्रथमानिर्दिष्टं समास उपसर्जनम्' से 'अंति की उपसर्जनसंज्ञा तथा 'उपसर्जनंपूर्वम्' सूत्र से उसका पूर्वनिपात करने पर रूप बना अति हिम स्। 'कृत्तद्धितसमासाश्च' सूत्र से समग्र समुदाय की प्रातिपादिकसञ्ज्ञा होकर 'सुबोधातु प्रातिपादिकायोः' सुद् ङस का लुक होकर रूप बना अति हिमा। समस्त शब्द अति हिमा की एकादेशविकृतंनन्यवत् न्यायानुसार प्रतिपादिकत्व अक्षुण्ण रहने से प्रातिपादिकात् सूत्र द्वारा सुबुत्पत्ति के प्रसङ्ग में प्रथमा एकवचन की विवक्षा में अति आकार बना अतिहिम।

'अव्ययीभावश्च' सूत्र से अव्ययीभाव समास 'अतिहिम' की अव्यय संज्ञा होकर अव्यंयादाप्सुपः सूत्र से उससे परे सुप् सु का लुक् प्राप्त हुआ परन्तु 'नाव्ययीभावादतोऽम् त्वपञ्चम्याः सूत से लुक् का बाध होकर आदेश होने पर तथा अभिपूर्वः से पूर्वरूप एकादेश होकर रूप बना अहिहिमम्।

 

अतिनिद्रम् - (निद्रा इस समय उचित नहीं)

लौकिक विग्रह - 'निंद्रा सम्प्रति न युज्यते इति अतिनिद्रम्'।
अलौकिक विग्रह = 'निद्राङ्स +अति'।

इतिहरि - (हरि शब्द की प्रसिद्धि)।

लौकिक विग्रह - हरि शब्दस्य प्रकाश: इति इतिहरि।
अलौकिक विग्रह - हरि ङ्स इति।

अनुविष्णु - लौकिक विग्रह - विष्णोः पश्चाद्नुविष्णु।

अलौकिक विग्रह 'विष्णु स + अनु'।

अनुरूपम् - लौकिक विग्रह - रूपस्य योग्ययनुरूपम्।

अलौकिक विग्रह - रूप ङस + अनु।

प्रत्यर्थम् - (प्रत्येक अर्थ के प्रति)

लौकिक विग्रह - अर्थम् अर्थ प्रति प्रत्यर्थम्।
अलौकिक विग्रह - अथ अम् + प्रति

यहाँ पर यह यथा के वीप्सा अर्थ में विद्यमान अव्यय 'प्रति' का समर्थ सुबन्त 'अर्थ अम्' के साथ सूत्र 'अव्ययं विभक्ति' सूत्र से नित्य अव्ययीभाव समास होता है। उपसर्जन का पूर्वनिपात पर प्रति + अर्थ अम्' स्थिति में प्रातिपदिक सञ्ज्ञा सुब्लुक करने पर 'इकोयणाचि' सूत्र द्वारा यणसन्धि यथा अनन्तः विभक्ति कार्य के प्रसङ्ग में 'सु' को अमादेश और 'अभिपूर्वः' द्वार 'पूर्वरूप एकादेश करने पर प्रत्यर्थम् सिद्ध हो जाता है।

समर्थ
यथाशक्ति - (शक्ति के अनुसार, शक्ति को न लांघना)

लौकिक विग्रह - 'शक्तिमनतिक्रम्य यथाशक्ति'।
अलौकिक विग्रह - 'शक्ति अम् + यथा'।

यहाँ पर 'अव्ययं विभक्तिः' सूत्र द्वारा 'यथा' के पदार्थऽनतिवृत्ति अर्थ में वर्तमान अव्यय 'यथा' का सुनन्त 'शक्ति अम्' के साथ नित्य अव्ययीभाव समास होता है। शेष पूर्ववत्।

सहरि - (हरि की समानता)

लौकिक विग्रह - 'हरिया सादृश्यं सहरि।
अलौकिक विग्रह - हरि टा सह।

यहाँ पर अव्ययं विभक्तिसमीप समृद्धि व्यद्ध यर्थाद्भावात्ययासंप्रति शब्द प्रादुर्भाव पश्चाद् यथानुपूर्व्ययौगपद्य सादृश्यसंपत्ति साकल्यान्त वचनेषु सूत्र द्वारा यथा के सादृश्य अर्थ में वर्तमान अव्यय 'सह' का समर्थ सुबन्त 'हरि टा' के साथ नित्य अव्ययीभाव समास हुआ है। सह की उपसर्जन संज्ञा उपसर्जन का निपात् समास की प्रातिपदिक संज्ञा तथा सुब्लुक् करने पर रूप बना 'सह हरि'। अब सूत्र 'अव्ययीभावे चाकाले' द्वारा 'सह' के स्थान पर 'स' सर्वा देश होकर बना सहरि। 'एकदेश विकृतसथवात्' न्यायानुसार प्रातिपादिक 'सहरि' से प्रथमा एकवचन की विवक्षा में 'सु' आने पर अव्यय से परे 'सुप्' का लुक् होकर रूप सिद्ध हुआ 'सहरि'।

अनुज्येष्ठम् - (ज्येष्ठ की पूर्वता क्रमानुसार अर्थात् पहले सबसे बड़ा)

लौकिक विग्रह - ज्येष्ठस्य अनुपूर्व्येण अनुज्येष्ठम्।
अलौकिक विग्रह - ज्येष्ठ ङस् + अनु।

संचक्रम् - (चक्र के साथ एक ही काल में)

लौकिक विग्रह - चक्रेण युगपत् सचक्रम्।
अलौकिक विग्रह - चक्रं टा + सह।

ससाखि- (मित्र के सम्मान)

लौकिक विग्रह - सख्या सदृश: ससखि।
अलौकिक विग्रह- सखि हां + सह।

सक्षत्रम् - (क्षत्रियों का स्वानुरूप क्षत्रियत्व)

लौकिक विग्रह - क्षत्राणां सम्पत्तिः सक्षत्रम्।
अलौकिक विग्रह - क्षत्र आम् + सह।

सतृष्णम् - (तिनके को भी छोड़े बिना)

लौकिक विग्रह - तृणामपि अपरित्यज्य सतृष्णम् अति।
अलौकिक विग्रह - तृण टी + सह।

साग्नि - (अग्नि ग्रन्थ की समाप्ति तक पढ़ता है)

लौकिक विग्रह - अग्नि ग्रन्थपर्यन्तम् अधीते इति साग्नि अधीते।
अलौकिक विग्रह - अग्नि टा + सह।

यहाँ पर 'अन्त' (समाप्ति) के अर्थ में वर्तमान व्यय 'सह' का समर्थ सुबत्त 'अग्नि टा' के साथ सूत्र 'अव्ययं विभक्ति' द्वारा नित्य अव्ययीभाव समास हुआ है।

पञ्चगङ्गम् - (पाँच गंगाधाराओं का समूह)

लौकिक विग्रह- पञ्चानां गङ्गानां समाहारः पञ्चगङ्गम्।
अलौकिक विग्रह - पञ्चन् आम् + गङ्गगा आम्।

 

यहाँ पर 'पञ्चन् आम् इस संख्यावाची सुबन्त 'गङ्गा आम्' इस नदीवाचक समर्थ सुबत्त के साथ 'नदीभिश्च' सूत्र से समाहार के अर्थ में अव्ययीभाव समास हो जाता है। प्रथमा निर्दिष्टं समास उपसर्जनम्' सूत्र के द्वारा समास विधायक सूत्र में प्रथामानिर्दिष्ट (अनुवर्तित) संख्या पद से बोध्य पञ्चन् आम् की उपसर्जन संज्ञा तथा 'उपसर्जनपूर्वम्' से उसका पूर्व निपात करने पर रूप बना पञ्चन् आम् + गङ्गा आम्। ‘कृत्तद्धितसमासाश्च' सूत्र से समग्र - सदुदाय की प्रातिपादिक संज्ञा होकर 'सुपोधातुप्रातिपदिकयोः’ सूत्र से प्रतिपादिकावयव सुयो (दोनों आम) का लुक् होकर बना पञ्चन् गङ्गा। सुप् के लुप्त हो जाने पर भी प्रत्यय लक्षण द्वारा 'पञ्चन्' की पदसञ्ज्ञा रहने के कारण "न लीपः प्रातिपदिकान्तस्य' सूत्र से पञ्चन् में पदान्त नकार का लोप होकर बना पञ्चगङ्गा पुनः 'अव्ययीभावश्च' सूत्र द्वारा अव्ययीभाव समास को नपुंसक मानकर "ह्रस्वो नपुंसके प्रातिपदिकम् सूत्र द्वारा पञ्चगंङ्गा को ह्रस्व अन्तादेश करने पर रूप बना पञ्चङ्गा। 'एकदेशविकृतमानयवत्' न्यायानुसार पञ्चङ्ग प्रातिपादिक से याप्प्रातिपदिकात् सूत्र द्वारा सुबुत्पत्ति के प्रसङ्ग में प्रथमा के एकवचन की विवाक्षा में 'सु' लाने पर पञ्चगङ्ग + सु हुआ। पुनः अव्ययीभावाश्च से अव्ययपञ्चगङ्ग से पदे सुप् का 'अव्ययादाप्सुपः से प्राप्त लुक का 'नाव्ययीभावादतोऽमत्वपञ्चमाः' सूत्र से बाध होकर अमादेश तथा 'अमिपूर्वः' द्वारा पूर्वरूप एकादेश करने पर रूप बना 'पञ्चगङ्गम्'।

द्वियमुनम् - (दो यमुना धाराओं का समूह)

लौकिक - द्वयोर्यमुनयोः समाहारः द्वियमुनम्।
अलौकिक विग्रह - द्वि ओस् + यमुना ओस्।

यहाँ पर 'द्वि ओस्' इस संख्यावाची सुक्त का यमुना ओस' इस नदी विशेषवाचक समर्थ सुमन्त के साथ 'नदीमिश्च' सूत्र से समाहार के अर्थ में अव्ययीभाव समास हो जाता है। (शेष पूर्ववत्)।
उपशरदम् - (शरद ऋतु के समीप)।

लौकिक विग्रह - शरदः समीपम् उपशरदम्।
अलौकिक विग्रह - शरद् स + उप।


यहाँ पर 'समीप' के अर्थ में वर्तमान अव्यय उप 'का' शरद् इस इस समर्थ सुबन्त
के साथ 'अव्ययं विभक्ति समीपसमृद्धिव्यद्यर्थाभावात्ययासंप्रतिशब्द प्रादुर्भावपश्चाद्यथापूर्णा - यौगपद्य सादृश्यसं पत्तिसाकल्मान्त वचनेषु' सूत्र द्वारा नित्य अव्ययीभाव समास हो जाता है। सूत्रस्थ प्रथमानिर्दिष्ट पद 'अव्ययम्' से बोध 'उप' की सूत्र प्रथमानिर्दिष्टं समास उपर्जनम् से उपसर्जन संज्ञा तथा 'उपसर्जनपूर्वम्' से उसका पूर्व-नियात करने पर रूप बना उपशरद ङस् 'कृन्तद्वितसमासाश्च' सूत्र से समग्र समुदाय की प्रातिपादिक संज्ञा तथा 'सुपोधातुव्रातिपदिकयोः सूत्र से प्रातिपादिकावयव सूप (स) का लुक होकर रूप बना उपशरद्। पुनः 'अव्ययीभावे शरद प्रभृतिभ्यः' सूत्र द्वारा समासान्त 'टच्' प्रत्यय होकर टकरा चकार अनुबन्धों का लोप करने से 'उपशरद्' अ = उपशरद बन जाता है। 'टच्' प्रत्यय 'समासान्ताः' के अधिकार में पठित होने से समासान्त है। अतः तद्विशिष्ट समग् 'उपशरद' अव्ययीभाव होता है। 'कृतर्द्धिसमासाश्च' से तद्वितान्त होने के कारण प्रातिपदिक उपशरद' से 'याप्प्रातिपदिकात्' सूत्र से सुबुत्पत्ति के प्रसङ्ग में प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में 'सु' लाने पर उपशरद् + सु हुआ। अब अव्ययीभावश्च से अव्ययसंज्ञक 'उपशरद' से परे सु के 'अव्ययादात्सुपः' से प्राप्त लुक् का अदत्त होने के कारण नाव्ययीभावादतोऽम्' त्वमञ्चम्पाः सूत्र से बोध होकर आदेश तथा अभिपूर्वः द्वारा पूर्वरूप एकादिश होकर 'उपशरदम्' रूप बना।

प्रतिविपाशम् - (व्यास नदी के सम्मुख)

लौकिक विग्रह - विपाशं प्रति प्रतिविपाशमम्।
अलौकिक विग्रह - विपाश् अम् + प्रति।


यहाँ पर 'आभिमुख्य' अर्थ में वर्तमान अव्यय 'प्रति' का लक्षणवाची 'विपाश् अम्' इस समर्थ सुबन्त के साथ "लक्षणेनाभिप्रती आभिमुख्ये" सूत्र से विकल्प से अव्ययीभाव समास होता है। सूत्रस्थ प्रथमानिर्दिष्ट पद 'अव्ययम्' से बोध्य 'प्रति' की सूत्र 'प्रथमानिर्दिष्ट समास उपसर्जनम् से उपसर्जन सञ्ज्ञा तथा 'उपसर्जनं पूर्वम्' से उसका पूर्व-निपात करने पर रूप बना प्रतिविपाश् अम्। 'कृत्तद्वितसमासाश्च' सूत्र से समग् समुदाय की प्रातिपदिक संज्ञा तथा 'सुपोधातुप्रातिपदिकयोः' से प्रातिपदिकावयव सुप् (अम्) का लुक् होकर रूप बना प्रतिविपाश 'कृतद्वित समासाश्च' से तद्वितान्त होने के कारण प्रातिपादिक 'प्रतिविपाश' से 'याम्प्रातिपडिकात्' सूत्र से सुबुत्पत्ति के प्रसङ्गा में प्रथमा के एकवचन की विपक्षा में सु
लाने पर प्रतिविपाश + सु हुआ। अब अव्ययी भावश्च' से अव्ययसंज्ञक 'प्रतिविपाश' से परे 'सु' के अव्ययादाप्सुपः' से प्राप्त लुक् का अदत्त होने के कारण "नाव्ययीभावादतोऽम् क्वपम्याः " सूत्र से बाध होकर अमादेश तथा अमिपूर्वः द्वारा पूर्वरूप एकादेश होकर 'प्रतिविपाशम्' रूप बना।

उपजरसम् - (बुढ़ापे के निकट)

लौकिक विग्रह - जरायाः समीपम्।
अलौकिक विग्रह - डारा ङस् + उप।

यहाँ समीप अर्थ में 'उप' अव्यय का जरा डस्' के साथ अव्ययं विभक्ति समीप समृद्धि सूत्र से नित्य अव्ययीभाव समास होकर उपसर्जन संज्ञक 'उप' का पूर्व निपात, समास की प्रातिपदिक सञ्ज्ञा, तथा उसके अवयव सुप् (स) का लुक करने पर 'उपजरा' बना। अब अव्ययीभावे शरत्प्रभृतिभ्यः, से समासान्त टच् प्रत्यय होकर उसके परे रहते 'जरायाः जरश्च' इस गुणसूत्र द्वारा जरा, का जरस् सर्वादेश हो जाता है। उपजरस् + अ = उपजरस। प्रथमा एकवचन की विवक्षा में सु को अम् आदेश तथा अभिपूर्वः से पूर्वरूप करने पर 'उपजरसम् ́ प्रयोग सिद्ध हो जाता है।

उपराजम् - (राजा के पास)

लौकिक विग्रह - राज्ञः समीपम्।
अलौकिक विग्रह - राजन् ङस् + उप।

यहाँ पर समीपवाचक अव्यय 'उप' का 'राजन ङस्' इस समर्थ सुबत्त के साथ अव्ययं विभक्ति समापसमृद्धि व्यद्ध यर्थाभावात्ययासंप्रतिशब्द प्रादुर्भाव पश्चाद्यथान पूर्व्य यौगपद्य सादृश्यसंपत्ति साकल्यान्त वचनेषु सूत्र द्वारा नित्य अव्ययीभाव समास हुआ है। समास होकर उप की उपसर्जन सञ्ज्ञा, उपसर्जन का पूर्वनिपात समास की प्रातिपादिक सञ्ज्ञा तथा 'सुपोधातुप्रातिपदिकयो:' सूत्र से प्रातिपादिकावयव सुप् (ङस्) का लुक करने पर रूप बना उपराजन्। अन्नन्त अव्ययीभाव 'उपराजन्' से परे 'अनश्च' सूत्र से टच् प्रत्यय के 'टब्' (अ) के परे रहते यचि भम्' सूत्र से पूर्ण की 'भ' संज्ञा होकर अल्लोपोडनः से भसंज्ञक अन् आकार का लोप प्राप्त होता है, किन्तु 'नस्तद्विते' सूत्र से दद्वित टच् (अ) प्रत्यय परे रहते नकारास्त भसंज्ञक उपराजन् की हि (अन्) का लोप होकर उपराज + अ उपराज बना। अब 'कृत्तद्वितसमासाश्च' से प्रातिपादिक उपराज से परे 'ङयाप्प्रातिपादिकात्' सूत्र से सुपुत्पत्ति के प्रसंङ्ग में प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में 'सु लाने पर 'उपराज + सु' हुआ' पुनः 'अंव्यपादात्सुपः' से प्राप्त 'सु' के लुक् का बाध 'नाव्ययीभावादतोऽम्त्वपञ्चम्यनः' सूत्र से अमादेश करने पर 'अभिपूर्वः' से पूर्वरूप एकादेश होकर 'उपराजम्' प्रयोग सिद्ध होता है।

अध्यात्म - (आत्मा में आत्मा के विषय में)

लौकिक विग्रह - आत्मनि इति अध्यात्मम्।
अलौकिक विग्रह - आत्मन् ङि अधि।

यहाँ विभक्तर्थ (अधिकरण) में वर्तमान 'अधि' अव्यय का समर्थ सुबन्त 'आत्मन् ङि के साथ अव्ययंविभक्ति समीपठ' सूत्र से नित्य अव्ययीभाव समास हुआ है। शेष उपरिवत्।
उपचर्मम् - (चमड़े के समीप)

लौकिक विग्रह - चर्मणः समीपम् उपचर्मम् उपचर्म वा।
अलौकिक विग्रह - चर्मन् स + उप।

यहाँ 'चर्मन्' ङस् + उप इस अलौकिक विग्रह में समीप अर्थ में वर्तमान 'उप' अव्यय का 'चर्मन' स इस सुवन्त के साथ 'अव्ययं विभक्ति सभी समृद्धि व्यद्वयर्था भावात्याय संप्रतिशब्द प्रादुर्भावपश्चाद्यथानुपूर्ण्य यौगपद्यसादृश्यं संपत्ति साकत्यान्त वचनेषु सूत्र द्वारा नित्य अव्ययीभाव समास हो जाता है। समास में 'उप की उपसर्जन संज्ञा उसका पूर्वनिपात समास की प्रातिपादिक संज्ञा तथा उसके अवयव सुप् (ङस्) का लुक करने पर उपचर्मन् इन अनन्त नुपंसक शब्द 'चर्मन्' के विद्यमान रहने से 'नपुंसकादन्यतरस्याम्' सूत्र द्वारा 'अनश्च' से प्राप्त 'टच्' समासान्त की नित्या का वाद्य होकर वैकल्पिक प्रवृत्ति हो जाती है। टच् पक्ष में 'उपचर्मन्' + अ इस स्थिति में उपचर्मन की 'यचि भूम्' सूत्र से भसंज्ञा कर 'नस्तद्विते' द्वारा उस कोटि (भनू) का लोप करने पर 'उपचर्म + अ = उपचर्म बनता है। कृन्तद्धित समासाश्च' सूत्र से प्रातिपादित 'उपचर्म से परे ङ्यापप्राति पदिकात् सूत्र के सुबत्पत्ति के प्रसंग में 'सु' लाने पर, पुनः अव्ययादाप्सुपः' से प्राप्त 'सु' के लुक् का बाध नाव्ययीभावादतोऽत्वपञ्चम्पाः सूत्र से होकर अम् आदेश तथा अभिपूर्वः द्वारा पूर्वरूप करने पर 'उपचर्मम्' प्रयोग सिद्ध हुआ।

उपचर्म - समासान्त टच् (भा) के अभाव पक्ष में 'उपचर्मन' की कृत्तद्धितसमासाश्च से प्रातिपादिक सञ्ज्ञा होती है तथा 'ङयाप्प्रातिपदिकात्' सूत्र से सुबुत्पत्ति के प्रसङ्ग में प्रथमा के एकवचन की विवक्षा में 'सु' लाने पर 'उपचर्मन् ́ + सु हुआ। अव्ययीभावश्च सूत्र से अव्यय 'उपचर्मन्' + सु हुआ। अव्ययीभावश्च सूत्र से अव्यय 'उपचर्मन्' से परे 'सु' का सूत्र 'अव्ययादाप्सुपः' से लुक् होकर 'उपचर्मन्' बना। पुनः पदान्त नकार का नः लोपः प्रातिपदिकान्तस्य द्वारा लोप होकर प्रयोग 'उपचर्म' सिद्ध हुआ।

उपसमिधम् - (समिधा - यज्ञकाष्ठ के समीप)

लौकिक विग्रह - समिधः समीपम् उपसमिधम् उपसमिद् वा।
अलौकिक विग्रह - समिध् ङस् + उप।

यहाँ समीपवाचक 'उप' अव्यय का समिध ङस् इस सुबन्त के साथ अव्ययं समीप सूत्र द्वारा नित्य अव्ययीभाव समास होता है। समास होकर 'उप' की उपसर्जन संज्ञा उसका पूर्वनिपात्, समास की प्रातिपदिक संज्ञा तथा उसके अवयव सुप् (ङस्) का लुक करने पर 'उपसमिध्म्' बना। इस अव्ययीभाव के अन्त में झप् वर्ण ध् होने से 'झपः सूत्र से समासान्त टच् (अ) प्रत्यय विकल्प से होता है। टच् प्रत्यय के भाव पक्ष में, उपसमिध् + अः उपसमिध हुआ। 'कृत्तद्वितसमासाश्च' सूत्र से प्रातिपादिक 'उपसमिध' से परे प्रथमा के ङ्गयाष्ठसूत्र से एकवचन की विवक्षा में 'सु' आने पर 'सु' को समादेश तथा 'अभिपूर्व' द्वारा पूर्वरूप करने पर 'उपसमिधम् प्रयोग सिद्ध होता है।

उपसमिद् - टच् के अभावपक्ष में 'उपसमिध' से सु लाने पर 'अव्ययादाप्सुपः सूत से उसका लुक् करने पर उपसमिध रूप बना। पुनः 'वाऽवसाने' सूत्र से अवसान में स्थित झल् धकार के स्थान पर विकल्प से 'चर' आदेश होने पर धकार का सदृशतम् तकार होकर रूप बना उपसमित। पुनः झलोजशोऽते से पदान्त झल् तकार जो जश् दकार होकर 'उपसमिद्' प्रयोग सिद्ध होता है।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- निम्नलिखित क्रियापदों की सूत्र निर्देशपूर्वक सिद्धिकीजिये।
  2. १. भू धातु
  3. २. पा धातु - (पीना) परस्मैपद
  4. ३. गम् (जाना) परस्मैपद
  5. ४. कृ
  6. (ख) सूत्रों की उदाहरण सहित व्याख्या (भ्वादिगणः)
  7. प्रश्न- निम्नलिखित की रूपसिद्धि प्रक्रिया कीजिये।
  8. प्रश्न- निम्नलिखित प्रयोगों की सूत्रानुसार प्रत्यय सिद्ध कीजिए।
  9. प्रश्न- निम्नलिखित नियम निर्देश पूर्वक तद्धित प्रत्यय लिखिए।
  10. प्रश्न- निम्नलिखित का सूत्र निर्देश पूर्वक प्रत्यय लिखिए।
  11. प्रश्न- भिवदेलिमाः सूत्रनिर्देशपूर्वक सिद्ध कीजिए।
  12. प्रश्न- स्तुत्यः सूत्र निर्देशकपूर्वक सिद्ध कीजिये।
  13. प्रश्न- साहदेवः सूत्र निर्देशकपूर्वक सिद्ध कीजिये।
  14. कर्त्ता कारक : प्रथमा विभक्ति - सूत्र व्याख्या एवं सिद्धि
  15. कर्म कारक : द्वितीया विभक्ति
  16. करणः कारकः तृतीया विभक्ति
  17. सम्प्रदान कारकः चतुर्थी विभक्तिः
  18. अपादानकारकः पञ्चमी विभक्ति
  19. सम्बन्धकारकः षष्ठी विभक्ति
  20. अधिकरणकारक : सप्तमी विभक्ति
  21. प्रश्न- समास शब्द का अर्थ एवं इनके भेद बताइए।
  22. प्रश्न- अथ समास और अव्ययीभाव समास की सिद्धि कीजिए।
  23. प्रश्न- द्वितीया विभक्ति (कर्म कारक) पर प्रकाश डालिए।
  24. प्रश्न- द्वन्द्व समास की रूपसिद्धि कीजिए।
  25. प्रश्न- अधिकरण कारक कितने प्रकार का होता है?
  26. प्रश्न- बहुव्रीहि समास की रूपसिद्धि कीजिए।
  27. प्रश्न- "अनेक मन्य पदार्थे" सूत्र की व्याख्या उदाहरण सहित कीजिए।
  28. प्रश्न- तत्पुरुष समास की रूपसिद्धि कीजिए।
  29. प्रश्न- केवल समास किसे कहते हैं?
  30. प्रश्न- अव्ययीभाव समास का परिचय दीजिए।
  31. प्रश्न- तत्पुरुष समास की सोदाहरण व्याख्या कीजिए।
  32. प्रश्न- कर्मधारय समास लक्षण-उदाहरण के साथ स्पष्ट कीजिए।
  33. प्रश्न- द्विगु समास किसे कहते हैं?
  34. प्रश्न- अव्ययीभाव समास किसे कहते हैं?
  35. प्रश्न- द्वन्द्व समास किसे कहते हैं?
  36. प्रश्न- समास में समस्त पद किसे कहते हैं?
  37. प्रश्न- प्रथमा निर्दिष्टं समास उपर्सजनम् सूत्र की सोदाहरण व्याख्या कीजिए।
  38. प्रश्न- तत्पुरुष समास के कितने भेद हैं?
  39. प्रश्न- अव्ययी भाव समास कितने अर्थों में होता है?
  40. प्रश्न- समुच्चय द्वन्द्व' किसे कहते हैं? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
  41. प्रश्न- 'अन्वाचय द्वन्द्व' किसे कहते हैं? उदाहरण सहित समझाइये।
  42. प्रश्न- इतरेतर द्वन्द्व किसे कहते हैं? उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
  43. प्रश्न- समाहार द्वन्द्व किसे कहते हैं? उदाहरणपूर्वक समझाइये |
  44. प्रश्न- निम्नलिखित की नियम निर्देश पूर्वक स्त्री प्रत्यय लिखिए।
  45. प्रश्न- निम्नलिखित की नियम निर्देश पूर्वक स्त्री प्रत्यय लिखिए।
  46. प्रश्न- भाषा की उत्पत्ति के प्रत्यक्ष मार्ग से क्या अभिप्राय है? सोदाहरण विवेचन कीजिए।
  47. प्रश्न- भाषा की परिभाषा देते हुए उसके व्यापक एवं संकुचित रूपों पर विचार प्रकट कीजिए।
  48. प्रश्न- भाषा-विज्ञान की उपयोगिता एवं महत्व की विवेचना कीजिए।
  49. प्रश्न- भाषा-विज्ञान के क्षेत्र का मूल्यांकन कीजिए।
  50. प्रश्न- भाषाओं के आकृतिमूलक वर्गीकरण का आधार क्या है? इस सिद्धान्त के अनुसार भाषाएँ जिन वर्गों में विभक्त की आती हैं उनकी समीक्षा कीजिए।
  51. प्रश्न- आधुनिक भारतीय आर्य भाषाएँ कौन-कौन सी हैं? उनकी प्रमुख विशेषताओं का संक्षेप मेंउल्लेख कीजिए।
  52. प्रश्न- भारतीय आर्य भाषाओं पर एक निबन्ध लिखिए।
  53. प्रश्न- भाषा-विज्ञान की परिभाषा देते हुए उसके स्वरूप पर प्रकाश डालिए।
  54. प्रश्न- भाषा के आकृतिमूलक वर्गीकरण पर प्रकाश डालिए।
  55. प्रश्न- अयोगात्मक भाषाओं का विवेचन कीजिए।
  56. प्रश्न- भाषा को परिभाषित कीजिए।
  57. प्रश्न- भाषा और बोली में अन्तर बताइए।
  58. प्रश्न- मानव जीवन में भाषा के स्थान का निर्धारण कीजिए।
  59. प्रश्न- भाषा-विज्ञान की परिभाषा दीजिए।
  60. प्रश्न- भाषा की उत्पत्ति एवं विकास पर प्रकाश डालिए।
  61. प्रश्न- संस्कृत भाषा के उद्भव एवं विकास पर प्रकाश डालिये।
  62. प्रश्न- संस्कृत साहित्य के इतिहास के उद्देश्य व इसकी समकालीन प्रवृत्तियों पर प्रकाश डालिये।
  63. प्रश्न- ध्वनि परिवर्तन की मुख्य दिशाओं और प्रकारों पर प्रकाश डालिए।
  64. प्रश्न- ध्वनि परिवर्तन के प्रमुख कारणों का उल्लेख करते हुए किसी एक का ध्वनि नियम को सोदाहरण व्याख्या कीजिए।
  65. प्रश्न- भाषा परिवर्तन के कारणों पर प्रकाश डालिए।
  66. प्रश्न- वैदिक भाषा की विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
  67. प्रश्न- वैदिक संस्कृत पर टिप्पणी लिखिए।
  68. प्रश्न- संस्कृत भाषा के स्वरूप के लोक व्यवहार पर प्रकाश डालिए।
  69. प्रश्न- ध्वनि परिवर्तन के कारणों का वर्णन कीजिए।

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